Saturday, February 2, 2013


किसी को सुलाता हूँ तो किसी को जगाता हूँ
जिंदगी में हर फर्ज कैसे.कैसे निभाता हूँ।
किसी को मेरी वजह से तकलीफ न हो
इस एक ख्वाहिश में कितनी.कितनी चोटें कमाता हूँ।
बचपन नहीं कर सकता कल तक का इंतजार
उसका नाम आज है, उस पर आज ही ध्यान लगाता हूँ।
पहले जहाँ पूजा करता था फूल चढ़ाता था
अब जहाँ भी फूल देखता हँू, शीश नवाता हूँ।
अच्छे काम करते रहे, सब के आँसू पोंछते रहे
आज तक लगातार यही पूँजी कमाता हूँ ।
हर जगह जाना तो संभव नहीं हो पाया फिर भी
न जाने क्यूँ लोगों को लगता है हर जगह ही आता.जाता हूँ।
क्यों रिश्ते अजीब हो उठते हैं हर बार अलग.अलग
जब लोगों के सामने अपने घावों को दिखाता हूँ।
जो जुर्म करते हैं और फिर कबूल, वे ही खबर में, वे ही महान
और मैं इन दायरों के बाहर जबकि गल्तियाँ करने से कतराता हूँं।
बन्द आँखों  से ध्यान में हुए हैं बहुत छलावे अब तक
मैं तो हमेशा खुली आॅंखों से ध्यान करता, कराता हूँ।
हमेशा ऊपर ही ऊपर जाने के लिए ही नहीं
अक्सर नीचे उतरने को भी पंखों को फैलाता हूँ।
स्वर्ग नर्क की कल्पनायें खत्म होनी चाहिए
पूरी सृष्टि को अपनी कोशिशों से स्वर्ग बनाता हूँं।
बुरी जगहों में जाकर भी अच्छा काम करता हूँ
लेकिन अच्छी जगहों को बुरे कामों से बचाता हूँ।
ध्यान केन्द्रित करना पढ़ने-पढ़ाने.समझने के लिए जरूरी है
लेकिन विकेन्द्रित सम्पूर्ण दृष्टि से जीकर ज़िंदगी सुखद बनाता हूँ।

5 comments:

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

वाह!
आपकी यह प्रविष्टि कल दिनांक 04-02-2013 को चर्चामंच-1145 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

Tamasha-E-Zindagi said...

गिरीश जी बहुत अच्छा प्रयास | आभार

Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page

Unknown said...

SUNDAR VICHAR,YUN HI SAFAR JARI RAHE

रविकर said...

प्रभावी प्रस्तुति |
शुभकामनायें आदरणीय ||

virendra sharma said...


सुन्दर सार्थक सकारात्मक विचार की सशक्त अभिव्यक्ति .