Friday, February 8, 2013

वह ज़िंदगी को हमेशा कहता सज़ा ही क्यँू है
छोड़ना चाहता है हाथ तो फिर हाथ गहा ही क्यँू है 1
अभी और देर तक रोशनी की जरूरत थी
अभी इतनी जल्दी वह चिराग बुझा ही क्यँू है ? 2
मिलते ही मैं हो गया मुरीद उस बेहतरीन शख्स का
नहीं मिला था तो ईष्र्या का भाव रहा ही क्यँूं है ? 3
क्यों नही होता जल्दी फैसला और अमल
गुनाह सबके सामने, फिर महज़ सिलसिलाये गवाही क्यँू है ? 4
प्रोग्राम तो लगभग नहीं के बराबर था
फिर मीडिया में ये लगातार वाहवाही क्यँू है ? 5
सब कुछ तो दे रखा है ईश्वर ने उसे
फिर उसे ये एहसासे तबाही क्यँूं है ? 6
जब बच्चे ही पाक हैं, सच बोल सकते हैं
तो उन्हें वोट देने सेे मनाही क्यँू है ? 7
ऐ खुदा ! तूने ही तो हर रंग बनाये हैं
फिर पेड़.पौधों,पत्तियों का मंजर हरा ही क्यँू है ? 8
वह तो मुफलिसों सा सबको नजर आता है
फिर भी जीने का उसका अंदाज शाही क्यँू है ? 9
अगर वाकई यह अत्याचार मिटाना चाहते हो
तो अब तक ये अत्याचार सहा ही क्यँूं है ? 10
त्यौहार व खुशियाँ पुराने कपड़ों में भी मन सकती हैं
फिर कपड़े नये हों, ये जिद हुआ ही क्यँू है ? 11
ऊँचे.ऊँचे टीलों पर बैठकर सोचते हैं बड़े हो गये
ऐसे.ऐसे भ्रमों को मिलती हवा ही क्यँू है ? 12
अधिकांश समस्यायें हमारी खुद की ओढ़ी हैं
गलत माँगने का रोग हमें लगा ही क्यँू है ? 13
प्रकृति में कहीं गैर जरूरी हिंसा नहीं है
समाज में इतना गैर जरूरी ख़ून ख़राबा हुआ ही क्यँू है ? 14
खुदा तो शुरू से ही सभी को मिला ही हुआ है
फिर हरेक बंदा खुदा की तलाश का राही क्यँू है ? 15
जब विक्रेन्द्रित सम्पूर्ण दृष्टि का अहसास नहीं है
फिर ध्यान केन्द्रित करना वह सिखाता ही क्यूँ है ? 16

Monday, February 4, 2013


 मैं तो डायरियाँं लिखता अनायास रहा
मुझे क्‍या पता कि ये उपन्‍यास रहा ।                1
जीवन में लड़ाइयाँ रहीं इतनी तरह की
चन्‍द्रगुप्‍त, चाणक्‍य कभी वेदव्‍यास रहा।              2
न जीवन से दूर न आध्‍यात्‍मिकता से
ऐसा ही सहज मेरा संन्‍यास रहा।                3
आँखों को खोल के ही किया है ध्‍यान
हमेशा ही विवेक व होशो हवास रहा।                  4
जब भी सृजन का रहा जुनून
तन या मन पर न कोई लिबास रहा।                 5
हमने ही तो सब की भाषा समझी है
जो भी पेड़-पौधा, पशु-पक्षी आसपास रहा।               6
अब विश्‍वयुद्ध संवेदनाओं से जीता जाएगा
भले ही अब तक न कोई ऐसा इतिहास रहा।            7
व्‍यक्‍ति का नहीं, मुद्‌दों का विरोध करता हूं
किसी के प्रति मन में न एहसासे खटास रहा।      8
मैं चलता रहा गज़लों में पूरा संसार भरके
आग-पानी, मौसम, समाज, खटास-मिठास रहा।          9
चारों ओर तू ही तू तो है छाया हुआ
मैंने जिधर देखा तेरा ही उजास रहा।                  10
हर पल में नयी शुरूआत की संभावना रही
हर इक सांस में एक नया शिलान्‍यास रहा।            11
तुम्‍हारी कोशिशें रंग लायेंगी एक दिन
उनमें हमेशा ही भरा एक विश्‍वास रहा।           12
समझता बुनता रहा सृष्‍टि में रिश्‍तों के ताने-बाने
वही मेरे  िलए  चरखा,  सूत-कपास  रहा।            13
सच्‍चे, गहरे व तीखे भावों का असर होगा जरूर
भले ही न ठीक वाक्‍य-विन्‍यास रहा।                  14
आँखें निष्‍पक्ष थीं इसीलिए सब कुछ दिखा
निर्दोष, पूर्ण-दृष्‍टि रही, न कि महज़ क़यास रहा।        15
जो कुछ हुआ, सहज ही होता चला गया
नहीं कुछ भी कभी जबरन या सप्रयास रहा।            16
मेरी हर राह आम आदमी से होकर गुज़री
भले ही किसी के लिए वह ग़ैर ज़रूरी प्रयास रहा।        17
संसाधनों पर सारे जीवों का हक है बराबर
किसी के पास जो भी रहा महज़ एक न्‍यास रहा।        18
चुल्‍लू से पानी पीने को रहा तैयार सदा
क्‍या फ़क़र्, पास में कभी लोटा न गिलास रहा।         19
वह सीधी सादी भाष्‍ाा में बात कह गया
उसमें न कोई अलंकार या अनुप्रास रहा।          20
रिश्‍ते बढ़ते ही गये दूरियों के बावजूद
भले ही न वह हमेश्‍ाा हमारे पास रहा।              21
वह चलता ही रहा अपने सार्थक सपनों के लिए
लोगों के लिए तो वह अक्‍सर निशानये उपहास रहा।     22
प्‍यार के दरवाजे तुमने कितनी बार खोले, बंद किये
मेरी ओर से  सब  कुछ खुला, बिन  प्रयास  रहा।       23
हमेशा ही सबसे जुड़ा होने का खुलापन
और इसका अभ्‍यास ही उसका  राज़े सुवास रहा।        24
तेरी जरूरत नहीं पड़ी किसी भी मुक़ाम पर
पर यही क्‍या कम कि साथ तेरा एहसास रहा।     25
जाम चुक गया बेसबब तो क्‍या हुआ
ये क्‍या कम था सामने ख्‍़ााली गिलास रहा।              26
जिंदगी उम्‍मीद की  टिमटिमाहटों से कट जाती है
पानी भले न मिला, बादल तो आसपास रहा।           27
जिसको जो मिलना था मिल गया अंदर
और मैं बाहर खड़ा लगाता क़यास रहा।           28
मैं न धुना जा सका और न ही बुना
मैं सूत न बन पाया, सदा कपास रहा।            29
हवा, आर्द्रता, रोशनी तो सारे जग से मिली
जड़ों का भोजन तो ठिकाने के आस-पास रहा।      30
कभी आँसुओं, कभी नदियों, सज्‍जनों, पेड़ों के
रहा बगल में, यही तो मेरा कल्‍पवास रहा।             31
साधना करनी पड़ी है जब पाना चाहा है ईश्‍वर के किसी खंड को
लेकिन विराट ब्रह्म तो बिन प्रयास ही हमेशा आसपास रहा।    32

रोशनी के पास सिर्फ रोशनी नहीं होती
गर्मी, राह, जागरण, ध्वनि की कमी नहीं होती ।
प्यार भरे लफ़्जों से बड़ी कोई चीज मरहमी नहीं होती
संवेदना से बढ़कर कोई संजीवनी नहीं होती।
जडं़े और पंख दोनांे जरूरी हैं आदमी के लिए
जो आकाश समेटे बैठे ह,ैं पावों तले जमीं नहीं होती।
पत्थर और आदमी में फर्क तो महज इतना है
पत्थर के आँखांे व सीनों मंे नमी नहीं होती ।
सिर्फ आनन्द ही जिन्दगी का मकसद नही है
बगल का दुख देखकर किसके सीने में गमी नहीं होती।
जो सबसे करता हे निश्छल, बेशर्त, आदतन प्यार
सृष्टि दर्पण है, उसकी तरफ कोई कमान तनी नहीं होती ।
सबसे जुड़ाव जो करता है महसूस, रखता है ध्यान
जीवन में उसे किसी चीज की कमी नहीं होती।
यदि मन, विचार, कर्म व शब्द में एकरूपता हो
ते फिर संवादों में गलतफहमीं नहीं होती।
सभी तो यहाँ रहबरी का चोंगा पहने हैं
फिर क्यों कोई नहीं कहता कि यहाँ रहजनी नहीं होती।
सारी आत्मायें धरती से ही उपजी हैं
कोई भी आत्मा यहाँ आसमानी नहीं होती।
कौन कहता है सुख में नहीं होता है दुख
और दुख में सुख सनी नहीं होती ।
धरती पर इतने तरह के जीव जंतु हैं
आदमी को छोड़कर किसी की आमदनी नहीं होती।
हर कोई इतना अच्छा और दैवीय लगता है
अब तो सपने में भी किसी से दुश्मनी नहीं होती ।

हमारे सपने किन.किन अहंकारों से टकरा गये
और पंख किन.किन दीवारों से टकरा गये।
कुछ न कुछ तो नया रास्ता निकलेगा ही
जब आज के हालात पुराने संस्कारों से टकरा गये।
सभ्यतायंे तो हमेशा संगम ही करती रहीं
असभ्य व्यवहार ही सदैव असभ्यताओं से टकरा गये।
सबके जीने के अलग.अलग तरीके व औजार थे
लेकिन लोगों के औजार ही औजारों से टकरा गये।
साहित्य व विचार तो सबके भले के लिए ही हैं
फिर न जाने क्यँूं कुछ विचार ही विचारों से टकरा गये।
तमाम समस्यायें हो गयीं सहज ही वहीं पर पैदा
अन्दर के भाव जब बाह्य संचारों से टकरा गये।
वैसे तो मैंने सबकी सेवा करने का क्षेत्र ही चुना
फिर भी जाने क्यों मेरे काम दूसरों के अधिकारों से टकरा गये।
अंधेरों ने न तो कभी उजाले से, न अंधेरे से ही संघर्ष किया
आश्चर्य! हमेशा उजाले ही उजालों से टकरा गये।
ईश्वर जहां भी है, बैठा हंस ही रहा है देखकर
कभी साकार साकारों से या निराकार निराकारों से टकरा गये।
गुल खारों के साथ डाल पर मेल जोल से रहें तो ठीक
लेकिन हस्र साफ है जब वही गुल खारों से टकरा गये ।
हवा ही है जो धरा पर सारे ही जीवों को जोड़े हुए है
लेकिन क्या.क्या होता है बहार जब बहारों से टकरा गये।
सबसे जुड़ाव व संवेदनशीलता न महसूस कर ही
अक्सर अवतार तक अवतारों से टकरा गये।

gazal



  1. रोशनी के पास सिर्फ रोशनी नहीं होती
    गर्मी, राह, जागरण, ध्वनि की कमी नहीं होती ।
    प्यार भरे लफ़्जों से बड़ी कोई चीज मरहमी नहीं होती
    संवेदना से बढ़कर कोई संजीवनी नहीं होती।
    जडं़े और पंख दोनांे जरूरी हैं आदमी के लिए
    जो आकाश समेटे बैठे ह,ैं पावों तले जमीं नहीं होती।
    पत्थर और आदमी में फर्क तो महज इतना है
    पत्थर के आँखांे व सीनों मंे नमी नहीं होती ।
    सिर्फ आनन्द ही जिन्दगी का मकसद नही है
    बगल का दुख देखकर किसके सीने में गमी नहीं होती।
    जो सबसे करता हे निश्छल, बेशर्त, आदतन प्यार
    सृष्टि दर्पण है, उसकी तरफ कोई कमान तनी नहीं होती ।
    सबसे जुड़ाव जो करता है महसूस, रखता है ध्यान
    जीवन में उसे किसी चीज की कमी नहीं होती।
    यदि मन, विचार, कर्म व शब्द में एकरूपता हो
    ते फिर संवादों में गलतफहमीं नहीं होती।
    सभी तो यहाँ रहबरी का चोंगा पहने हैं
    फिर क्यों कोई नहीं कहता कि यहाँ रहजनी नहीं होती।
    सारी आत्मायें धरती से ही उपजी हैं
    कोई भी आत्मा यहाँ आसमानी नहीं होती।
    कौन कहता है सुख में नहीं होता है दुख
    और दुख में सुख सनी नहीं होती ।
    धरती पर इतने तरह के जीव जंतु हैं
    आदमी को छोड़कर किसी की आमदनी नहीं होती।
    हर कोई इतना अच्छा और दैवीय लगता है
    अब तो सपने में भी किसी से दुश्मनी नहीं होती ।

Saturday, February 2, 2013


किसी को सुलाता हूँ तो किसी को जगाता हूँ
जिंदगी में हर फर्ज कैसे.कैसे निभाता हूँ।
किसी को मेरी वजह से तकलीफ न हो
इस एक ख्वाहिश में कितनी.कितनी चोटें कमाता हूँ।
बचपन नहीं कर सकता कल तक का इंतजार
उसका नाम आज है, उस पर आज ही ध्यान लगाता हूँ।
पहले जहाँ पूजा करता था फूल चढ़ाता था
अब जहाँ भी फूल देखता हँू, शीश नवाता हूँ।
अच्छे काम करते रहे, सब के आँसू पोंछते रहे
आज तक लगातार यही पूँजी कमाता हूँ ।
हर जगह जाना तो संभव नहीं हो पाया फिर भी
न जाने क्यूँ लोगों को लगता है हर जगह ही आता.जाता हूँ।
क्यों रिश्ते अजीब हो उठते हैं हर बार अलग.अलग
जब लोगों के सामने अपने घावों को दिखाता हूँ।
जो जुर्म करते हैं और फिर कबूल, वे ही खबर में, वे ही महान
और मैं इन दायरों के बाहर जबकि गल्तियाँ करने से कतराता हूँं।
बन्द आँखों  से ध्यान में हुए हैं बहुत छलावे अब तक
मैं तो हमेशा खुली आॅंखों से ध्यान करता, कराता हूँ।
हमेशा ऊपर ही ऊपर जाने के लिए ही नहीं
अक्सर नीचे उतरने को भी पंखों को फैलाता हूँ।
स्वर्ग नर्क की कल्पनायें खत्म होनी चाहिए
पूरी सृष्टि को अपनी कोशिशों से स्वर्ग बनाता हूँं।
बुरी जगहों में जाकर भी अच्छा काम करता हूँ
लेकिन अच्छी जगहों को बुरे कामों से बचाता हूँ।
ध्यान केन्द्रित करना पढ़ने-पढ़ाने.समझने के लिए जरूरी है
लेकिन विकेन्द्रित सम्पूर्ण दृष्टि से जीकर ज़िंदगी सुखद बनाता हूँ।